1857 की एक जिहादी औरत - Hakeem Danish

Sunday, 5 February 2017

1857 की एक जिहादी औरत

1857 के जंग इ आजादी में दिल्ली के इंकलाबियों में एक अधेड़ औरत भी थी। वह रोज सब्ज मुसाफा बांधती और  नौजवानों को अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद करने के लिए हौसला अफजाई करती, इतना ही जब इंकलाबी अंग्रेजों पर हमलावर होते तो वो मर्दाना कपड़े पहन कर सबसे पहली सफ में खड़ी हो जाती और अपने सारे साथियों के  लौट आने या मारे जाने तक भी  पीछे नही हटती बल्कि रोज जिंदा वापस आ जाती। जंग से वापस आकर वो कहा जाती, कहा से आती, न किसीको उसके घर का पता था और ना ही परिवार का।
18 जुलाई 1857 को वह औरत जंग करती हुयी अंग्रेजी फ़ौज के करीब जा पहुंची और घायल होकर गिर पड़ी फिर गिरफ्तार कर ली गयी।
गरथर्ड अपने एक खत में 19 जुलाई 1857 को लिखता है की  गिरफ्तार होने के दिन वो अपने फ़ौज की कमान सम्भाल रही थी और हमारे दो तिन आदमियों को मारा भी। यहां तक की अपने खत में उसे "जेहादन औरत" और "जोन ऑफ़ आर्क" का ख़िताब देता है।
जहीर देहलवी भी अपनी किताब "दास्तान ए गदर" में लिखते हैं की वो औरत रोज बाजार में खड़ी हो जाती और मर्दों को जिहाद की दावत दिया करती थी । इतना ही नही वो फ़ौज के साथ  जंग में जाती और रोज जिंदा बच कर वापस आ जाती।
इसी तरह  हडसन अम्बाला के दीप्ती कमिश्नर से 29 जुलाई 1857 को एक खत में कहता है की - मैं तुम्हारे पास एक मुसलमान बुढ़िया को रवाना कर रहा हु। यह अजीब किस्म की औरत है। इस काम यह था की सब्ज लिबास पहन कर लोगों को बगावत के लिए आमादा करती थी और खुद हथियार बांध कर उनके मोर्चे पर कमान करती हुयी हमारे मोर्चे पर हमला करती थी। जिन सिपाहियों का इससे साबका पड़ा वो कहते हैं इसने बार बार हमले किये और मुस्तैदी से हथियार चलाये। इस में पांच मर्दों के बराबर ताक़त है। जिस रोज गिरफ्तार हुयी उस रोज घोड़े पर सवार थी और शहर के इंकलाबियों को फौजी तरतीब से लड़ा रही थी। यह बहुत अंदेशा नाक औरत है।
इसके बाद 29 जुलाई 1857 को ही उसे अम्बाला रवाना कर दिया गया और उसके बाद उसका कहि पता नही चलता।

सोर्स-( 1)दास्तान ए गदर
(2)तारीख ए जंग ए आजादी, पेज न.291-291
(3)- बेगमात के आंसू, पेज न.126

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