फ़ायक अतीक किदवई ने पद्मावत फ़िल्म के बारे में जो लिखा क़ाबिल-ऐ-तारीफ है - Hakeem Danish

Saturday 27 January 2018

फ़ायक अतीक किदवई ने पद्मावत फ़िल्म के बारे में जो लिखा क़ाबिल-ऐ-तारीफ है


Faiq Ateeq Kidwai ne #padmavat ke baare me jo likha...kabil- e - Tareef hai
#पद्मावत... jarur padhein

फ़िल्म ने मुझे पूरी तरह से निराश किया..एक्टिंग की बात करूँ तो सबकी एक्टिंग ठीक है,
फ़िल्म देखकर एक बात तो तय है कि संजय लीला भंसाली बचपन के दिनों मे इतिहास जैसे विषय मे फेल होते रहेंगे।
इससे पहले रणबीर सिंह ने " बाजीराव मस्तानी" में पेशवा बाजीराव का किरदार अदा किया था।
वो उसमे जल्दी जल्दी बोलता है और उचककर सिंहासन पे ऐसे बैठता है जैसे कोई बच्चा। मुझे मराठा इतिहास पता है लेकिन उनके रहन सहन तौर तरीके नही पता।
इसलिए मैंने सोचा कि मराठो का ये कल्चर होगा जिसे डायरेक्टर ने बाखूबी दिखाया इसलिए मन ही मन प्रशंसा की।

दरअसल भरतीय मातृत्वादी है, जो हज़ारो साल पहले खुले मैदानों के बजाय, जंगल झाड़ियों, गुफाओं और बंद महलों के रहते आए है इसलिए उनकी आंख की पुतलियां जल्दी घूमती है, जहां आड़ पट होता है वहां आपमें हिरन की तरह चौकना, कान लगाकर सुनना और फुर्ती जैसी आदते आ जाती है। जंगल मे झुक कर चलना तो कभी पत्थर पे अचानक चढ़ के बैठ जाना।
आवाज़ को दबाकर बोलना, तो कभी तेज़ बोलना, फुसफुसाना।

जबकि अरब के रहने वालों में ये गुण नही होते उन्हें दूर तक खुला मैदान दिखता है इसलिए उन्हें आहट पे चौकना या फौरन घूमने की ज़रूरत नही होती। उन्हें एक ही आवाज़ वो भी तेज़, और किसी पेड़ की झाड़ी डाल न होने की वजह से तन के चलने की आदत होती है

फ़िल्म में अलाउदीन जल्दी जल्दी बोलता है, मुस्लिम राजा कभी जल्दी नही बोलते, ठहरकर बोलना और सुस्ती से चलना उनकी आदत होती है।
दूसरी बात फ़िल्म में अलाउददीन का किरदर बहुत बुरा दिखाया गया है, ये सच है उसने अपने चाचा का क़त्ल करके तख़्त हासिल किया लेकिन इतिहास ऐसे किस्सों से भरा बड़ा है।

शुरू में दिखाते है कि अलाउददीन मंगोलों को हरा देता है, मंगोल का इतिहास आप जानते है इनसे खूखार कोई नही हुआ है।
भारत और चीन की 1965 की लड़ाई हुई उस वक़्त चीनी सैनिक भारत के सैनिकों पर गोलयां चलाते और जब भारत के सैनिक दम तोड़ देते तो वो पास आकर चाकू से बड़ी बेरहमी से उनका पेट मुँह और गला फाड़ देते।
जब उनसे इस बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने जवाब दिया हाँ मुझे ये पता है कि सैनिक मर चुके है लेकिन ये तरीका हमने मंगोलों से सीखा है कि जब दुश्मन अपने सैनिकों की लाशों की ऐसी हालत देखे तो सहम जाए, उन्हें ये पता लगना चाइए की हम कितने खूंखार है।
मंगोलो ने एक धनुष ईजाद किया था जो जानवर की दो पसलियों को जोड़कर बनता था, इस छोटे से धनुष की खासियत ये थी कि दुनियाभरके बेहतरीन धनुष से भी तीन गुना दूर उनका तीर जाता था।
वो युद्ध मे कभी ऊंचे घोड़े इस्तेमाल नही करते थे, हमेशा टट्टू जिसकी गर्दन बहुत छोटी होती है, उनका मानना था ऐसा करने के पीछे कारण ये है कि बड़ी गर्दन वाले घोड़े के दोनों ओर एक बार मे तलवार चलाया नही जा सकता, आपको बार बार पोजीशन बदलना पड़ता है।
ऐसे मंगोलों को अलाउददीन बुरी तरह हराता है,
मेरे ये नही समझ आता कि दुनिया भर के राजा जब कई देशों को जीतते है तो वीर पराक्रमी महान कहलाते है, फिर वो सिकंदर हो या अशोक लेकिन मुस्लिम राजा जब जीतता है तो धनलोलुप, क्रूर चरित्रहीन कहलाया जाता है। उसकी जींत में कभी उसके साहस की बात नही होती बस यही दिखाया जाता है की वो छल धोखे मक्कारी से जीता।
बाक़ी दुनिया नैतिकता से लड़ती रही।

अंग्रेज़ो के लिए भी यही कहा जाता है ख़ासकर क्लाइव के बारे में की फूट डालो राज करो कि नीति पर जीता अब क्या बताये इस देश मे फूट कब नही थी हक़ीक़त तो ये है कि जीत हिम्मत और उन्नत हथियारों से होती है, आंग्रेज़ों के पास अच्छी बंदूकें थी।
बाबर भी तोप और बारूद की वजह से जीता। आज अमेरिका रूस इज़राइल मज़बूत अपने शौर्य और साहस से नही बल्कि हथियारों से है।

हमारी फ़िल्मे इस्लामोफोबिक स्टीरियोटाइप होती है। ख़िलजी मांस नोच रहा है, हद है पागलपन की।
पिछले कई सालों से जितनी फ़िल्मे देखी है उसमें यही सब दिखाया गया है। बाहुबली के पहले पार्ट में कटप्पा के सामने एक मुस्लिम दिखाया और कटप्पा ने एकबार में ही उसकी तलवार काट दी।
फ़िल्म मगधीरा में हरे कपड़े पहने मुस्लिमो की हज़ारो की तायदाद में फौज खड़ी होती है और हीरो अकेले सबको मार देता है।
बाजीराव के सामने निज़ाम बौने हो जाते है और पूरी फ़िल्म में वो मुग़लो को चुनौती देता रहता है जबकि अपनी 27 जीतो में एक भी दिल्ली सल्तनत के करीब आकर नही जीती।

पद्मावती फ़िल्म में रतन सिंह का बार बार डायलॉग है जो ख़िलजी से बोलता है, इतिहास पन्नो पे नही लिखा जाता, सच तो ये है इतिहास पन्नो पे तो कुछ सही होता है लेकिन फ़िल्मो से इतिहास नही होता।

मेरे समझ नही आता कि करणी सेना क्यो इस फ़िल्म के विरुद्ध थी। जबकि फ़िल्म में राजपूतो का इतना महिमांडन किया गया है कि शायद ही किसी फिल्म में हो।
धड़ कटे और लड़ता रहे वो है राजपूत, नाव टूट जाये और तैरकर समुदंर पर करे वो है राजपूत, मूछें नीची न हो वगैरह वगैरह, दरअसल ये चारणो भाटो की पंक्तियां है।
राजपूत राजा भी आम इंसान थे। इसमे भी वीर पराक्रमी के साथ साथ डरपोक धोखेबाज़ हुए है। सभी जाति सभी धर्मो में ऐसा होता है।

याद रखिये महानता पराक्रम किसी एक जाति धर्म या लिंग की जागीर नही है, हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, दलित आदिवासी ब्राह्मण, स्त्री सबमे महान पराक्रमी भी हुए है और डरपोक गद्दार भी।
कोई इंसान अगर चोरी करता है तो उसे चोर लिखिए, डकैत तब तक न लिखिए जब तक उसने डकैती न कि हो। कहने का अर्थ है किसी भी बुरे इंसान की बुराई उतनी ही करो जितने उसने बुरे काम किये हो।

ख़िलजी छल से जीता, बाबर छल से जीता, हुमायूँ, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ औरंगज़ेब छल से जीते। फ़िल्म बनाओ तो कैरक्टर के साथ थोड़ा तो न्याय करो, संजय जी कम से कम इतिहास को एक बार ढंग से पढ़ तो लेते,
एक साल पहले फ़िल्म आई थी मोहनजोदाड़ो मुझे इस फ़िल्म को देखने की बड़ी दिलचस्पी थी। दरअसल मैं देखना चाहता था कि इस फ़िल्म में आर्यो का द्रविड़ो पर हमला दिखाएंगे, कैसे उन्होंने इस सभ्यता को तहस नहस कर दिया। कैसे उन्होंने लिखना सीखा, कौन से हथियार के साथ वो आये, लेकिन पूरी फिल्म में कहीं भी ये नही दिखा,
डायरेक्टर भी सच नही दिखा सके और मनघडंत कहानी बनाकर पेश कर दी।

अंत मे एक बात कहूँगा, पीरियड फ़िल्मे बनाना है तो एनसीआरटी की किताबें और थोड़े विदेशी इतिहासकारो की लिखी किताबो को पढ़कर बना दे, अपने मन से जो कूड़ा परोसते है उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी नही बल्कि मूर्खता का नमूना कहते है


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