भारतीय राजनीति की सुई के थोड़ा पीछे की तरफ धकेलिए और इस बीच भारत मे घटित होने वाली राजनीतिक घटनाक्रमों पर नज़र डालिए. आरएसएस की राजनीतिक शाखा “जनसंघ” का आधिकारिक रूप से जनता पार्टी मे विलय होता है. सन 1977 मे मोरारजी भाई देसाई की अगुआई मे जनता पार्टी की सरकार बनती है. उस सरकार मे अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री और लाल कृष्ण आडवाणी सूचना प्रसारण मंत्री बनाए जाते है. यह वही जनता पार्टी है जिसमे जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी नेता शामिल होते है. सन 1987 मे विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनती है. विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को एक मुहाने से भारतीय जनता पार्टी संभालती है जबकि दूसरी मुहाने से कम्यूनिस्ट पार्टी संभालती है. सन 1998 मे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनती है. जिसमे प्रमुख समाजवादी शरद यादव की जद(यू), ममता बनर्जी की तृणमूल, बीजू पटनायक की बीजद, इत्यादि समर्थन देती है और प्रमुख मंत्रालयों मे हिस्सेदार बनती है.
यानि भारत मे आरएसएस और भाजपा जैसी ताकतों को मजबूत करने मे समाजवादी और कम्यूनिस्ट बराबर के भागीदार और हिस्सेदार रहे है. जब आज आरएसएस और भाजपा मजबूती के साथ अपना क़िला जमा चुकी है तब यह ढोंगी समाजवादी, सेकुलर और वामपंथी इसके लिए जिम्मेदार ओवेसी, अजमल, रशादी और अयुब साहब को ठहरा रही है. बेचारा भोला भाला मुसलमान इन ढोंगियों की बातों मे पड़कर अपनी राजनीतिक प्रतिनिधित्व लेने से भी हिचकिचाता है. बिहार मे एक कहावत है “भत्रों मिठ और पुतवों मिठ”. ठीक उसी प्रकार इन तथाकथित सेकुलरों के लिए न भाजपा खराब है और नहीं दूसरी राजनीतिक पार्टियां. लेकिन, जिम्मेदार मुसलमान नेताओं द्वारा प्रतिनिधित्व की जाने वाली राजनीतिक पार्टियां है. जब कल यह सेकुलर दल कमजोर थी तो राजनीतिक सुख पाने के लिए भाजपा को नांव के तरह इस्तेमाल किया और जब आज भाजपा मजबूत हो गयी तो तथाकथित सेकुलर दल अपनी स्थिति को बेहतर करने के लिए मुसलमानो को नाँव बनाना चाहती है. अपनी राजनीतिक फायदा के लिए किसी को भी ढाल बनाकर इस्तेमाल करना ही ब्राह्मणवाद है और कम्यूनिस्ट या तथाकथित सेकुलर इसमे महारत रखते है.
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